बिहार की राजनीति और अपराध की कहानी कई बार एक-दूसरे से गुथी नज़र आती है। यही कारण है कि 90 के दशक का बिहार अक्सर “रक्तरंजित सियासत” के नाम से याद किया जाता है। इसी दौर में एक ऐसा नाम उभरा जिसने अपने हौसले, हथियार और हैसियत से पूरे चंपारण इलाके में दहशत और दबदबा बना लिया।
यह नाम था देवेन्द्र नाथ दुबे। देवेन्द्र दुबे की कहानी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं। पढ़ाई में तेज़, इंजीनियर बनने का सपना देखने वाला यह नौजवान परिस्थितियों और गुस्से में ऐसा रास्ता चुन बैठा, जिसने उसे अपराध और फिर राजनीति तक पहुँचा दिया।
पढ़ाई से लेकर अपराध की राह तक
देवेन्द्र दुबे पश्चिम चंपारण के टिकुलिया गांव के रहने वाले थे।
उनके पिता पुलिस विभाग में सिपाही थे और चाहते थे कि बेटा पढ़-लिखकर अधिकारी बने। दुबे बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थे और मैट्रिक व इंटर फर्स्ट डिवीजन से पास किया। मगर कॉलेज के दिनों में हुई एक घटना ने उनकी ज़िंदगी की दिशा ही बदल दी।
कहा जाता है कि कॉलेज में उनकी रिश्तेदार कुछ लड़कियों पर स्थानीय बदमाशों ने फब्तियां कसीं। दुबे ने विरोध किया, लेकिन उन तीन बदमाशों ने उन्हें पीट डाला। अपमान का यह घूंट वह पी नहीं सके। बदला लेने की ठानी और जल्द ही अपने साथियों के साथ गैंग बना लिया। कुछ ही समय बाद उन तीनों बदमाशों को गोलियों से भूनकर वह अपराध की दुनिया में कुख्यात हो गए।
जेल से गैंग का संचालन और राजनीति में एंट्री
1991 में असम से गिरफ्तारी के बाद दुबे को मोतिहारी जेल में डाल दिया गया। मगर जेल उनके लिए कैदखाना नहीं, बल्कि सत्ता की सीढ़ी बन गई। अंदर से ही वह अपने गिरोह को चलाते रहे। इसी दौरान उनका संबंध यूपी के डॉन श्रीप्रकाश शुक्ला से भी गहरा हो गया। देवेन्द्र दुबे का खौफ इतना था कि इलाके में उन्हें “रॉबिनहुड” की छवि भी मिल गई। गरीबों की मदद करने और दबंगों से टकराने की वजह से ग्रामीणों में उनका दबदबा और बढ़ गया।
1995 में जब नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाई, तो दुबे को मौका मिल गया। उन्होंने गोविंदगंज विधानसभा से समता पार्टी के टिकट पर नामांकन किया। विवाद के चलते पार्टी ने उनसे दूरी बना ली, लेकिन नामांकन वैध रहा। जेल में रहते हुए ही चुनाव लड़ा और जनता दल के दिग्गज विधायक योगेन्द्र पांडे को 14 हजार वोटों से हराकर विधायक बन गए।
अपराध, राजनीति और खून-खराबे का खेल
देवेन्द्र दुबे का नाम कई संगीन मामलों से जुड़ा रहा। उन पर हत्या से लेकर गैंगवार तक दर्जनों मुकदमे दर्ज हुए। मगर राजनीतिक पहुंच और गैंग की ताकत ने उन्हें बचाए रखा। इस दौरान उनका सीधा टकराव चंपारण के ही एक और बाहुबली नेता और लालू सरकार के मंत्री बृजबिहारी प्रसाद से हो गया। कहा जाता है कि दुबे और बृजबिहारी प्रसाद की दुश्मनी ने चंपारण की राजनीति और अपराध जगत में खूनी संघर्ष को जन्म दिया।
1998: चुनावी दिन बना मौत का दिन
22 फरवरी 1998 का दिन था। बिहार में लोकसभा चुनाव का दूसरा चरण चल रहा था। उसी दिन गोविंदगंज के विधायक देवेन्द्र नाथ दुबे अपने समर्थकों के साथ गाड़ी में बैठे थे। तभी आधुनिक हथियारों से लैस हमलावरों ने उन पर ताबड़तोड़ फायरिंग कर दी। देखते ही देखते दुबे गोलियों से छलनी हो गए। चुनावी दिन पर हुए इस खून-खराबे ने पूरे बिहार की राजनीति को हिला कर रख दिया। आरोप लगे कि इस हत्या के पीछे मंत्री बृजबिहारी प्रसाद और मोतिहारी के कुख्यात विनोद सिंह का हाथ था।
दुबे की मौत और बदले की कसम
देवेन्द्र दुबे की हत्या के बाद चंपारण का राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल गया। उनके भाई भूपेन्द्र नाथ दुबे ने उपचुनाव में जीत दर्ज कर परिवार की राजनीतिक पकड़ कायम रखी। वहीं दुबे की मौत का बदला लेने की कसम उनके भतीजे मंटू तिवारी ने खाई।
कुछ ही महीनों बाद पटना के आईजीआईएमएस में राजद मंत्री बृजबिहारी प्रसाद की हत्या कर दी गई। इस हत्याकांड में दुबे परिवार और उनके गिरोह के नाम सामने आए। इस तरह दुबे की हत्या ने बिहार की राजनीति को खून और गोलियों के दलदल में और गहरा धकेल दिया।
आज भी ज़िंदा है नाम
देवेन्द्र नाथ दुबे की मौत को 25 साल से ज़्यादा हो चुके हैं, लेकिन उनका नाम आज भी चंपारण की राजनीति और अपराध की कहानियों में जिंदा है। उनकी जिंदगी बिहार के उस दौर का प्रतीक है जब बाहुबल, बंदूक और राजनीति का संगम हुआ करता था।
You may also like
गौहर खान ने 'बिग बॉस 19' में अमाल मलिक को दी चेतावनी
जब BJP के आरके सिन्हा ने बाबरी मस्जिद कमेटी के नेता के लिए छोड़ी ट्रेन की सीट!
सोना: त्योहारों में सस्ता होगा या तोड़ेगा सारे रिकॉर्ड? जानिए आपको अभी खरीदना चाहिए या रुकना
इसके इस्तेमाल से एक भी बिमारी आपको नहीं छू पाएगी ! आमला – एक चमत्कारी औषधि।
"वीज़ा महंगा, सम्मान कम... ये कैसी विदेश नीति?" - अखिलेश यादव ने सरकार पर कसा तंज