श्रीनगर से क़रीब पच्चीस किलोमीटर दूर पुलवामा ज़िले का ऑखो गाँव अपने विशेष कारख़ानों के लिए जाना जाता है.
यह गाँव इसलिए ख़ास है क्योंकि यहाँ पेंसिल के लिए इस्तेमाल होने वाला कच्चा माल तैयार किया जाता है.
ऑखो को 'पेंसिल विलेज' कहा जाता है, लेकिन पेंसिल बनाने में इस्तेमाल होने वाले पॉपुलर पेड़ों की कटाई की वजह से इलाक़े में पेंसिल उद्योग से जुड़े लोग परेशान दिखते हैं.
हालाँकि कश्मीर ज़ोन के सामाजिक वानिकी (सोशल फ़ॉरेस्ट्री) विभाग का कहना है कि साल 2020 में एक नई पॉलिसी बनाकर पॉपुलर पेड़ों को काटने का अभियान रोक दिया गया है.
लेकिन स्थानीय कारोबारियों की शिकायत है कि काटे गए पेड़ों की जगह पर्याप्त संख्या में नए पेड़ नहीं लगने से उन्हें अपने कारोबार के भविष्य को लेकर चिंता दिखती है.
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ऑखो गाँव कश्मीर की मशहूर झेलम नदी के किनारे बसा है. यहाँ के कारख़ानों में तैयार किया गया कच्चा माल पेंसिल बनाने के लिए कश्मीर से बाहर भेजा जाता है.
ऑखो गाँव में ऐसे चार कारख़ाने हैं, जबकि यहां क़रीब पंद्रह किलोमीटर दूर लसिपोरा में भी ऐसे नौ कारख़ाने हैं. श्रीनगर के शादीपोरा में भी पेंसिल के कच्चे माल का एक कारख़ाना है.
जिस पेड़ से पेंसिल का कच्चा माल मिलता हैपेंसिल बनाने के लिए जो कच्चा माल तैयार किया जाता है, वो पॉपुलर पेड़ की लकड़ी होती है. इस पेड़ को कश्मीरी भाषा में 'फ्रेस' कहते हैं. पॉपुलर काफ़ी लम्बा पेड़ होता है.
ये लकड़ी कश्मीर में मकानों के निर्माण के दौरान मकान की छत के लिए भी इस्तेमाल की जाती है.
ये पेड़ निजी और सरकारी स्तर पर कश्मीर और लद्दाख़ में लगाए जाते हैं. लेकिन यहां मौजूद 'रूसी पॉपुलर' को काटने का अभियान चलाया गया, उसके तहत नदी- नालों, स्कूलों, सड़कों और कॉलेजों से ये पेड़ काटे गए.
वर्ल्ड बैंक की सहायता से एक योजना के तहत रूसी पॉपुलर पेड़ साल 1982 में कश्मीर में पहुंचा था.
रूसी पॉपुलर के पेड़ क़रीब पंद्रह सालों में काटने लायक हो जाते हैं, जबकि कश्मीर का पॉपुलर (फ्रेस) कम से कम चालीस सालों के बाद कटाई के लिए तैयार होता है.
कश्मीर में कम से कम नौ तरह के पॉपुलर पेड़ पाए जाते हैं.
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साल 2019 में सरकार ने पॉपुलर पेड़ों को कश्मीर में काटने का आदेश जारी किया था. इस आदेश के बाद कश्मीर के कई इलाक़ों में लाखों पॉपुलर पेड़ों को काटा गया था.
प्रशासन के आदेश से पहले साल 2015 में जम्मू और कश्मीर हाई कोर्ट ने भी कश्मीर में पॉपुलर पेड़ों को काटने के आदेश दिए थे.
पॉपुलर पेड़ों को काटने के पीछे सरकार का तर्क था कि इससे सांस से जुड़ी एलर्जी फैलती है. हालांकि, इसका कोई बड़ा साइंटिफिक सबूत नहीं मिल सका है.
पॉपुलर के जिन पेड़ों को काटने के आदेश दिए गए थे, वे 'रूसी पॉपुलर' थे.
'रूसी फ्रेस' को ग़लती से रशियन पॉपुलर नाम मिला है. हालांकि रूस से इसका कोई संबंध नहीं है. ये एक अमेरिकी पेड़ है.
दरअसल इन पेड़ों से रुई की तरह रेशे निकलते हैं जो लोगों के सिर पर चिपक जाते हैं और रूसी (डैंडरफ़) की तरह दिखते हैं. इसी से इसका नाम 'रूसी' फ्रेस पड़ गया.
कारख़ानों की मुश्किलें
पेंसिल के लिए कच्चा माल बनाने वाले कारख़ाना मालिकों को अब डर है कि पॉपुलर पेड़ काटने से उनके कारोबार को आने वाले समय में बड़ा नुक़सान हो सकता है.
पुलवामा के ऑखो गाँव में मंज़ूर अहमद अलाई का पेंसिल के कच्चे माल का कारख़ाना है.
वह कहते हैं, "सरकार ने पॉपुलर पेड़ों को काटा, लेकिन फिर से उन्हें लगाने का प्रयास नहीं किया गया. जब कटाई शुरू की गई थी तो सरकार ने कहा था कि इससे बीमारियां फैलती हैं. लेकिन, बाद में इसका कोई सबूत नहीं मिला."
"सरकार ने बेरहम और अंधाधुंध तरीके़ से पॉपुलर पेड़ों को काटने का काम किया. पॉपुलर पेड़ काटने से हमारे काम पर ख़तरा मंडरा रहा है. अगर ऐसा ही हाल रहा तो अगले तीन वर्षों में हमारा काम बंद हो सकता है."
मंज़ूर अहमद का कारख़ाना हर महीने कम से कम तीन लाख पेंसिल के लिए कच्चा माल तैयार करता है.
फॉरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया के अनुमान के मुताबिक़, कश्मीर घाटी में पॉपुलर पेड़ों के उद्योग से हर साल छह सौ करोड़ का कारोबार होता है. इस उद्योग से हज़ारों लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोज़गार मिलता है.
कश्मीर के इन कारख़ानों में पेंसिल का कच्चा माल बनाने का सालाना कारोबार 150 करोड़ का है.
पेंसिल के लिए कच्चे माल बनाने के अलावा पॉपुलर लकड़ी से प्लाई भी तैयार की जाती है.
सोशल फॉरेस्ट्री विभाग के अधिकारियों के मुताबिक़, कश्मीर में पॉपुलर पेड़ों की संख्या कम से कम डेढ़ करोड़ है.
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पुलवामा ज़िला देश में पेंसिल निर्माण के लिए 70 फ़ीसदी तक कच्चा माल तैयार करता है.
पेंसिल निर्माण से जुड़े कारख़ानों में काम करने वालों में स्थानीय नौजवान, लड़कियां और बाहर से आए प्रवासी मज़दूर शामिल हैं.
ऐसी ही एक स्थानीय युवती मुस्कान बिलाल हैं. वह कहती हैं, "हम यहाँ कमाते हैं, ये कारख़ाने बंद नहीं होने चाहिए. अब हम अपने पैरों पर खड़े हैं और घरवालों पर निर्भर नहीं हैं. पहले हम पिता से पैसे माँगते थे, लेकिन अब ज़रूरत पड़ने पर हम उन्हें पैसे देते हैं. ये कारख़ाने हमारे लिए बहुत ख़ास हैं."
इलाक़े के एक और युवक बट शहीद शारीरिक कमज़ोरी के चलते रोज़गार के लिए संघर्ष कर रहे थे. अब उन्हें इसी कारख़ाने में नौकरी मिली है और वह यहीं से अपना गुज़ारा कर रहे हैं.
वह कहते हैं, "मेरे घर में माँ और भाई हैं. माँ बीमार रहती हैं और भाई चल नहीं पाता. मैं ही घर का अकेला कमाने वाला हूँ. पिछले नौ साल से मैं इस कारख़ाने में काम कर रहा हूँ. यहाँ नौकरी मिलने से अब मैं माँ के लिए दवाएं ख़रीद पाता हूँ. मैं इस कारख़ाने का शुक्रगुज़ार हूँ."
मंज़ूर अहमद के दो कारख़ानों में क़रीब 150 स्थानीय और अन्य क्षेत्रों से आए हुए कामगार काम करते हैं.
वह कहते हैं, "पेंसिल बनाने के लिए जिस पॉपुलर पेड़ की लकड़ी की ज़रूरत होती है, वह कश्मीर में ख़ूब मिलती है. यह लकड़ी कश्मीर के बाहर भी पाई जाती है, लेकिन गुणवत्ता के लिहाज़ से कश्मीर की लकड़ी सबसे उपयुक्त मानी जाती है."
उनका कहना है कि भारत जिन 82 देशों को पेंसिल निर्माण के लिए कच्चा माल भेजता है, वह लकड़ी भी कश्मीर के पॉपुलर पेड़ों से ली जाती है.
कच्चे माल की आपूर्ति के मामले में यह इलाक़ा अब चीन और जर्मनी को भी पीछे छोड़ चुका है.
दो साल पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम में ऑखो गाँव का ज़िक्र किया था. उन्होंने मंज़ूर अहमद को बधाई देते हुए बताया था कि देश में पेंसिल निर्माण के लिए इस्तेमाल होने वाले अधिकतर कच्चे माल का उत्पादन पुलवामा में होता है.
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कश्मीर में सेब के बाद पॉपुलर के पेड़ का कारोबार कमाई का एक बड़ा ज़रिया है. कश्मीर के ख़ासकर ग्रामीण इलाक़ों में बड़ी संख्या में लोग पॉपुलर के पेड़ उगाते हैं, जो उनके बड़े-बड़े ख़र्चों में मददगार साबित होता है.
जो किसान अपनी ज़मीनों या ख़ाली सरकारी ज़मीनों में पॉपुलर के पेड़ उगाते हैं, वे पेड़ बेचने के बाद अपने बच्चों की शादी भी कर पाते हैं या अन्य ज़रूरतों में इस पैसे का इस्तेमाल करते हैं.
इसकी लकड़ी से न सिर्फ पेंसिल का कच्चा माल बनाया जाता है, बल्कि लकड़ी के कई दूसरे कामों में भी इसका इस्तेमाल होता है. कश्मीर में पॉपुलर की लकड़ी का इस्तेमाल सेब की पैकिंग करने में भी किया जाता है.
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साल 2020 में सोशल फॉरेस्ट्री विभाग ने 'पॉपुलर कमीशन' का गठन किया था. अपनी रिपोर्ट में कमीशन ने बताया था कि पॉपुलर से निकलने वाली रुई से सांस से जुड़ी एलर्जी का कोई ख़ास संबंध नहीं पाया गया या इसका कोई बड़ा वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिला है.
सरकार ने जो कमीशन गठित किया था, उसमें केवल ये पाया गया था कि रूसी पॉपुलर की एक ख़ास किस्म से कुछ हद तक एलर्जी का ख़तरा रहता है.
विभाग के डायरेक्टर (कश्मीर ज़ोन) इरफ़ान रसूल वानी ने बीबीसी हिंदी को बताया कि साल 2020 में सरकार ने कश्मीर में पॉपुलर पेड़ों के हवाले से एक रिपोर्ट तैयार की थी.
साल 2020 में सरकार ने जो रिपोर्ट पेश की उसमें केवल रूसी पॉपुलर पेड़ की ख़ास प्रजाति को काटा गया था. इनको दोबारा लगाने की किसी को भी इजाज़त नहीं है. अब यह पॉपुलर पेड़ विभाग के पास भी उपलब्ध नहीं हैं.
कश्मीर ज़ोन के सोशल फ़ॉरेस्ट्री विभाग के मुताबिक़, पॉपुलर पेड़ों को काटने का अभियान साल 2020 में एक नई पॉलिसी बनाकर रोक दिया गया.
कमीशन ने रिपोर्ट में बताया कि जहाँ तक सांस से जुड़ी एलर्जी का सवाल है तो कश्मीर में पॉपुलर पेड़ों के कारण न ही पॉज़िटिव और न ही कोई नेगेटिव संबंध है. अब ये तय हो गया है कि पॉपुलर सांस संबंधी एलर्जी के लिए ज़िम्मेदार नहीं है.
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